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कब बनेगी हिंदी .... देश के माथे की बिंदी -- विश्लेषण -- आज भारतवर्ष को आजाद हुए करीब 73 वर्ष का एक लंबा अंतराल बीत चुका है। अखंड कहे जाने वाले हमारे देश भारत की कोई एक राजभाषा नहीं बन सकी। कहने को तो हम कह सकते हैं कि हिंदी हमारी राष्ट्र्भाषा है लेकिन, क्या वास्तव में इसे वह स्थान मिल सका है जिसकी यह हकदार है? शायद नहीं हमारे प्रजातंत्र का एक पहलू यह भी है कि यहां कोई भी काम शुरू होने से पहले

February 03, 2020 08:32 PM
कब बनेगी हिंदी  .... देश के माथे की बिंदी 
 
प्रस्तुति: अग्रजन पत्रिका द्वारा-
-- विश्लेषण --
 
आज भारतवर्ष को आजाद हुए करीब 73 वर्ष का एक लंबा अंतराल बीत चुका है। अखंड कहे जाने वाले हमारे देश भारत की कोई एक राजभाषा नहीं बन सकी।  कहने को तो हम कह सकते हैं कि हिंदी हमारी राष्ट्र्भाषा है लेकिन, क्या वास्तव में इसे वह स्थान मिल सका है जिसकी यह हकदार है? शायद नहीं हमारे प्रजातंत्र का एक पहलू यह भी है कि यहां कोई भी काम शुरू होने से पहले ही आलोचनाओं के भंवर में फंस जाता है।  आज भारत 29 खंडों में बंटा हुआ देश है। यहां हर 50 किलोमीटर के बाद संस्कृति व हर 20 किलोमीटर के बाद बोलचाल की भाषा यानी डायलक्ट, बदल जाती है। 
 
आज़ाद होने के बाद पूरे भारतवर्ष में एक भाषा और एक शिक्षा पद्धति की बातें उठी थीं।  लेकिन अफसोस प्रदेशवाद और जातिवाद के बोझ तले सब कुछ दबकर रह गया। दुनिया के ज्यादातर विकसित देशों की अपनी एक राष्ट्रभाषा है जैसे रूस, चीन, जापान, जर्मनी, फ्रांस, अमेरिका , इंग्लैंड वगैरह-वगैरह। वहां की शिक्षा प्रणाली, प्रशासन व न्यायपालिका के सभी काम उनकी एक ही भाषा में होते हैं। वहां विद्यार्थियों के कंधों पर हमारे देश की तरह तीन-तीन, चार-चार भाषाओं का बोझ नहीं होता है।  इस सच्चाई से कोई मुंह नहीं मोड़ सकता कि हमारे देश में अगर कोई एक ऐसी भाषा है जिसे सबसे ज्यादा बोला और समझा जाता है तो वह हिंदी भाषा ही है। 
 
मुझे यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि हमारे देश के प्रसिद्ध समाचार पत्रों में ही करीब 30 प्रतिशत अंग्रेज़ी के शब्द देवनागरी लिपि में पढ़ने को मिलते हैं। दूरदर्शन और समाचार पत्रों के विज्ञापनों में हिंदी के शब्दों को रोमन लिपि में लिखा दिखाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अगर हिन्दी समाचार पत्रों और हिन्दी टी.वी. चैनलों में हिंदी की यह दुर्दशा है तो कैसे बनेगी हिंदी देश की भाषा और कहां पहुचेंगी हमारी "हिंदी पत्रकारिता" ।  भारत के रहनुमाओं और हिंदी के बड़े संस्थानों को स्वत: ही इसका संज्ञान लेने की जरूरत हैं। मेरा दावा है कि अगर राजनीति से इत्तर हमारी दृढ़ इच्छा-शक्ति रही तो वह दिन दूर नहीं जब हिंदी दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र के माथे की बनेगी बिन्दी। 
 
दुनिया का पहला विश्व हिंदी सम्मलेन 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ था। विश्व हिंदी दिवस को हर वर्ष 10 जनवरी को मनाए जाने की घोषणा तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह जी ने 2006 में की थी। यानी इसे हर बरस आधिकारिक तौर पर मनाने में ही 31 साल लग गए। कारण आप सोच सकते हैं। आज दुनिया के लगभग 170 देशों में हिंदी किसी न किसी रूप में पढ़ाई व सिखाई जाती है। 
 
संयुक्त राष्ट्रसंघ बनते समय केवल 4 राज भाषाएं यानी चीनी, अंग्रेजी, फ्रांसीसी और रुसी स्वीकृत की गई थी। जबकि 1993 में अरबी और स्पेनिश को जोड़ा गया लेकिन हिंदी कहीं नहीं। आज भारतीय योग विद्या को 177 देशों का समर्थन मिला है। इसका श्रेय पूज्य योग गुरु बाबा रामदेव जी को जाता है।  यह हमारे लिए बहुत ही गर्व की बात है। लेकिन हिंदी को हम संयुक्त राष्ट्र संघ की राजभाषा नहीं बनवा सके। मानसिक तौर पर अंग्रेजी बोलने में हम गर्व महसूस करते हैं और हिंदी बोलने में हीनता।  इसे दिमागी दिवालियापन ही कह सकते हैं। विडंबना देखिए कि रोमन लिपि के 26 अक्षरों की अंग्रजी, देवनागरी के 52 अक्षरों पर भारी है कारण हमारा राजभाषा के प्रति गंभीर न होना व इच्छाशक्ति की कमी का होना। भारतवर्ष की पहली हिंदी पत्रिका सन 1826 में "उदण्ड मार्तण्ड" नाम से प्रकाशित हुई थी। आजादी के बाद सम्पर्क और सरकारी कामकाज की जरूरत अगर हिंदी बनती तो हालात यह न होते। लेकिन अफसोस राजनीति इस पर हावी होती रही। 
 
केंद्र व राज्य सरकारों की नो हजार के लगभग वेबसाइट्स हैं।  जो पहले अंग्रेजी में खुलती हैं फिर इसका हिंदी विकल्प आता है। यही हाल हिंदी में कम्प्यूटर टाइपिंग का है।  टाइप करते वक्त उसे रोमन लिपि में टाइप किया जाता है और बाद में वह देवनागरी में बदलती है।  इसमें भी कई फांट्स होते हैं।  कई कम्प्यूटरों में खुलते ही नहीं।  यह हिंदी के साथ घोर अन्याय है। चीन, रूस, जापान, फ्रांस, यू.ए.ई. यहां तक कि पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित बहुत से दूसरे देश कम्प्यूटर पर अपनी एक भाषा और एक फॉन्ट में काम करते हैं। हम किसी भी प्रांत जाति धर्म के हों, लेकिन जब बात एक देश की हो तो भाषा व लिपि भी एक ही जरूरी है, तभी हिंदी के अच्छे दिन आएंगे। 
 
संयुक्त अरब अमीरात ने एक ऐतिहासिक फैंसला लेते हुए अरबी व अंग्रेजी के बाद हिंदी को अपनी तीसरी आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल कर लिया है।  यह हमारे लिए बहुत गर्व की बात है और एक हम हैं कि 73 सालों में हिंदी को वह दर्जा नहीं दे सके जो इसे देना चाहिए। एक समाचार के मुताबिक इस साल हिंदी भाषी उत्तरप्रदेश बोर्ड की परीक्षा में 10,00, 000 बच्चे हिंदी में फेल हो गए है। यह हमारे लिए बहुत ही शर्म की बात है।  सोचिए अगर उत्तर भारत में हिंदी का यह हल है तो भारत के दूसरे प्रांतों का क्या हाल होगा ? इसका सबसे बड़ा कारण है कि कई दशकों से विद्यार्थियों को तमाम माध्यमों द्वारा यह बात सिखाई गई है कि जीवन में अगर कुछ करना है तो अंग्रेजी सीखो और उसी पर ध्यान दो। 
 उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव अंग्रेजी में पूछे गए सवालों का जवाब हिंदी में देते हैं। इसे कहते हैं राष्ट्रवाद इसके विपरीत दक्षिण भारत से कांग्रेस नेता शशि थरूर ने कहा था कि हिंदी हम पर लादी जा रही है।  वह अंग्रेजी के विद्वान माने जाते हैं और उन्होंने कई अंग्रेजी में पुस्तकें भी लिखी हैं। मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि अपने जब अंग्रेजी सीखी तो क्या तब आप पर वह लादी गई थी और अगर लादी गई थी तो तब आपने उसका विरोध क्यों नहीं किया ? अंग्रेजी साम्राज्य के चलते अगर हम अंग्रेजी सीख सकते हैं तो क्या कारण है कि आजादी के बाद हम अपने ही देश में आज़ाद रहते हुए अपनी भाषा हिंदी नहीं सीख सकते ? इसका एक ही सबसे बड़ा कारण समझ में आता है और वह है कमज़ोर प्रजातंत्र यानी लूस डेमोक्रेसी, ऐसा मेरा मानना है। 
 
इस बारे में जितना भी कहा जाए कम है।  अंत में अपने पत्रकार भाइयों से निवेदन करूंगा कि हिंदी और हिंदी पत्रकारिता को और आगे बढ़ाने के लिए हिंदी भाषा का जितना ज्यादा से ज्यादा प्रयोग किया जा सके कीजिएगा।   
 
लेखक : एस.के.जैन
 
 
 
 
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