हिन्दू धर्म में सोलह संस्कार और उनकी विधि आओ जानें
हिन्दू धर्म भारत का सर्वप्रमुख धर्म है। इसमें पवित्र सोलह संस्कार संपन्न किए जाते हैं। हिंदू धर्म की प्राचीनता एवं विशालता के कारण ही उसे 'सनातन धर्म' भी कहा जाता है।
बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम आदि धर्मों के समान हिन्दू धर्म किसी भी व्यक्ति विशेष द्वारा स्थापित किया गया धर्म नहीं, बल्कि प्राचीन काल से चले आ रहे विभिन्न धर्मों एवं आस्थाओं का बड़ा समुच्चय है। महर्षि वेदव्यास के अनुसार मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक पवित्र सोलह संस्कार संपन्न किए जाते हैं।
1. गर्भाधान :
गर्भाधान संस्कार महर्षि चरक ने कहा है कि मन का प्रसन्न और पुष्ट रहना गर्भधारण के लिए आश्यक है इसलिए स्त्री एवं पुरुष को हमेशा उत्तर भोजन करना चाहिए और सदा प्रसन्नचित्त रहना चाहिए। गर्भ की उत्पत्ति के समय स्त्री और पुरुष का मन उत्साह, प्रसन्नता और स्वस्थ्यता से भरा होना चाहिए। उत्तम संतान प्राप्त करने के लिए सबसे पहले गर्भाधान-संस्कार करना होता है। माता-पिता के रज एवं वीर्य के संयोग से संतानोत्पत्ति होती है। यह संयोग ही गर्भाधान कहलाता है। स्त्री और पुरुष के शारीरिक मिलन को गर्भाधान-संस्कार कहा जाता है। गर्भस्थापन के बाद अनेक प्रकार के प्राकृतिक दोषों के आक्रमण होते हैं, जिनसे बचने के लिए यह संस्कार किया जाता है। जिससे गर्भ सुरक्षित रहता है। विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है।
2. पुंसवन :
पुंसवन संस्कार तीन महीने के पश्चात इसलिए आयोजित किया जाता है क्योंकि गर्भ में तीन महीने के पश्चात गर्भस्थ शिशु का मस्तिष्क विकसित होने लगता है। इस समय पुंसवन संस्कार के द्वारा गर्भ में पल रहे शिशु के संस्कारों की नींव रखी जाती है। मान्यता के अनुसार शिशु गर्भ में सीखना शुरू कर देता है, इसका उदाहरण है अभिमन्यु जिसने माता द्रौपदी के गर्भ में ही चक्रव्यूह की शिक्षा प्राप्त कर ली थी।
3. सीमंतोन्नायन सीमंतोन्नायन संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म का ज्ञान आए, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है। इस दौरान शांत और प्रसन्नचित्त रहकर माता को अध्ययन करना चाहिए।
4. जातक्रम :
बालक का जन्म होते ही जातकर्म संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। इसके अंतर्गत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है ताकि बच्चा स्वस्थ और दीर्घायु हो।
5. नामकरण :
जातकर्म के बाद नामकरण संस्कार किया जाता है। जैसे की इसके नाम से ही विदित होता है कि इसमें बालक का नाम रखा जाता है। शिशु के जन्म के बाद 11वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय किया जाता है। बहुत से लोगों अपने बच्चे का नाम कुछ भी रख देते हैं जो कि गलत है। उसकी मानसिकता और उसके भविष्य पर इसका असर पड़ता है। जैसे अच्छे कपड़े पहने से व्यक्तित्व में निखार आता है उसी तरह अच्छा और सारगर्भित नाम रखने से संपूर्ण जीवन पर उसका प्रभाव पड़ता है। ध्यान रखने की बात यह है कि बालक का नाम ऐसा रखें कि घर और बाहर उसे उसी नाम से पुकारा या जाना जाए।
6. निष्क्रमण :
इसके बाद जन्म के चौधे माह में निष्क्रमण संस्कार किया जाता है। निष्क्रमण का अर्थ होता है बाहर निकालना। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश आदि से बना है जिन्हें पंचभूत कहा जाता है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। साथ ही कामना करते हैं कि शिशु दीर्घायु रहे और स्वस्थ रहे।
7. अन्नप्राशन : अन्नप्राशन संस्कार संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है। प्रारंभ में उत्तम प्रकार से बना अन्न जैसे खीर, खिचड़ी, भात आदि दिया जाता है।
8. चूड़ाकर्म :
सिर के बाल जब प्रथम बार उतारे जाते हैं, तब वह चूड़ाकर्म या मुण्डन संस्कार कहलाता है। जब शिशु की आयु एक वर्ष हो जाती है तब या तीन वर्ष की आयु में या पांचवें या सातवें वर्ष की आयु में बच्चे के बाल उतारे जाते हैं। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है। साथ ही शिशु के बालों में चिपके कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे शिशु को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है।
9. कर्णवेध :
कर्णवेध संस्कार का अर्थ होता है कान को छेदना। इसके पांच कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से ज्योतिषानुसार राहु और केतु के बुरे प्रभाव बंद हो जाते हैं। तीसरा इसे एक्यूपंक्चर होता जिससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होने लगता है। चौथा इससे श्रवण शक्ति बढ़ती है और कई रोगों की रोकथाम हो जाती है। पांचवां इससे यौन इंद्रियां पुष्ट होती है।
10. यज्ञोपवीत : यज्ञोपवित को उपनय या जनेऊ संस्कार भी कहते हैं। प्रत्येक हिन्दू को यह संस्कार करना चाहिए। उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ यानि यज्ञोपवित में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। इस संस्कार से शिशु को बल, ऊर्जा और तेज प्राप्त होता है। साथ ही उसमें आध्यात्मिक भाव जागृत होता है।
11. वेदारंभ :
इसके अंतर्गत व्यक्ति को वेदों का ज्ञान दिया जाता है।
12. केशांत :
केशांत का अर्थ है बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत या कहें कि मुंडल किया जाता है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें। प्राचीनकाल में गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद भी केशांत संस्कार किया जाता था।
13. समावर्तन : समावर्तन संस्कार अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम या गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद व्यक्ति को फिर से समाज में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार किया जाना।
14. विवाह :
उचित उम्र में विवाह करना जरूरी है। विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। इसके अंतर्गत वर और वधू दोनों साथ रहकर धर्म के पालन का संकल्प लेते हुए विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान ही नहीं दिया जाता बल्कि व्यक्ति के आध्यात्मिक और मानसिक विकास के लिए भी यह जरूरी है। इसी संस्कार से व्यक्ति पितृऋण से भी मुक्त होता है।
15 विवाह अग्नि संस्कार:
विवाह संस्कार में होम आदि क्रियाएं जिस अग्नि में की जाती हैं, उसे विवाह के बाद वर-वधू अपने घर में लाकर किसी पवित्र स्थान पर स्थापित करते हैं और प्रतिदिन अपने कुल की परंपरा के अनुसार सुबह-शाम हवन करते हैं।
16 अंत्येष्टि :
हिंदू धर्म शास्त्रों की मान्यता के अनुसार अंत्येष्टि क्रिया के बिना मृतक की आत्मा को शांति नहीं मिलती। प्रत्येक मनुष्य के लिये जन्म और मृत्यु का संस्कार ऋण स्वरूप माना गया है।
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